मंज़िल की ओर

इक राग सा खींचे अपनी ओर 
पकड़ें तो कैसे उसका छ़ौर 
दिन रात मचाऐ ऐसा श़ौर 
कित ना भटके पाये न डोर 

इक खेल जगत है सारी भोर 
हर बार छिपाए करें सब गौर 
उछले कूदे दौड़े हर ओर 
जितना रोकें भागे उस और

मनवा तेरे बस में नाहीं 
जग में अटके हर दम माही 
इत्उत जावै चेन न पावे 
देखत न काहे अपनी ओर 

बस बस करदा फस्दा जावे
रांझण न मिलदा हीर सुनावे 
रूक नी सकदा चल वी न पावे
कच्चा मटका घुलदा जावे

हर पल डुब्बे, पर डुब्ब न पावे 
हर बार बचावे नी श़ौर मचावे 
पर नज़र न आवे, क्यों छुप जावे
ईन्ना समझावे पर समझ न पावे

क्यों नी तेनु समझ न आवे 
मन घबरोंदा किथ्थै जावे
ऑखां मूंदे तां कुछ गल पावे
पगला कहावे बस ढुब्दा जावे

रब ए इश्क दा चस्का इन्ना गूढ़ा 
चढ़ वी ना सकदा न उतर ही पावे
कौन मनावे तेनु कौन बुलावे 
बस टुरदा जावे कदि रूक वी जावे।




Comments

Popular posts from this blog

Is Myth a Word?

Mind matters: waiting to unfold‏

Can you retain the CHILD in your KID?