गुमशुदा
एक लम्हा ज़िन्दगी का इस कदर ठहरा एक मुकाम पर आके जैसे कोई किनारा मिला बहती हुई नदी को मझधार के पार जा के खामोशी इतनी की सन्नाटा भी चीख चीख कर है कह रहा अब तो मत छूओ मुझको मत करो कोई बात रहने दो चुप बस लब को चलता हुआ अंधेरो मैं गुमशुदा सा एक साया मेरी उम्मीद से रोशन तेरे पहलू की आगोश में सर रख कर खोने की तड़प से गुमसुम सुन जाता न कहीं आता खोया न मौजूद तरंग से परेह सिसकियों का शोर अटका समय की सीमा से उस और घूम रहा अपनी ही चारों और बजता किसी नाद की धाप के जैसा लभ ढब लभ ढब धड़कनो सा सबकी पकड़ से दूर गुमनाम किसी गली मैं खोया लापता सा दर्द से बेगाना नो कोई रिश्ता न कोई ठिकाना हमदर्द भी नहीं कोई सकूँ की बेइंतिहा मुहोबत का अफ्फसाना मेरा घर तेरा अाशियाना